Tuesday, February 05, 2008

Longing for the past.

मस्तिष्क पटल में तुम्ही अंकित हो ।
अब भी मेरे लिए समर्पित हो।
सिर्फ मैंने परिपक्वता का रुप देखा।
तुमने मुझे मगरूर देखा ।

अब भी तुम्हे कभी कभी याद करते है,
उन क्षणों का ध्यान करते है।
कितनी प्रतीक्षा करवाता था मैं,
कितना अपने भाग्य पे इठलाता था मैं।

लाड प्यार को अधिकार सा समझा,
तुम्हारे प्यार को समझ के भी ना समझा ।
क्षण तुम्हारे साथ व्यतीत करने का मन तो था,
पर मस्तिष्क को यकीन दिलाने का बहाना ना था।

उन क्षणों को ध्यान करता हूँ,
आज भी उसी घेरे के इर्द गिर्द अपने को पता हूँ।
निर्भीक मैं कभी था नही,
ह्रदय में रहते हुए भी जिव्हा पे आया ना कभी।

चाहो तो इसे अंहकार समझो,
चाहो तो इसे प्यार समझो।

2 comments:

sawan said...

गुनाहों के देवता पर आपने जो टिपण्णी लिखी है उसके लिए कोटि कोटि धन्यवाद! और आपकी प्रशंसा के लिए भीउत्तर में हुए इस विलम्ब के लिए क्षमा भी। कोशिश करूंगा आगे से और भी लिख सकूं। निरंतरता के लिए थोड़ा और श्रम करना पड़ेगा और थोडी प्रेरणा भी। किंतु अब थोड़ा और मन से प्रयास करूंगा।

वैसे आपकी कविताएँ पढी। बहुत अच्ही लगी। बस ऐसे ही अपनी रचनाशीलता का दिया जलाए रखे।

सआदर
सावन

Amritash said...

Dimag ki batti jala dee...